नासा भारतीय अंतरिक्ष यात्री को एस्ट्रोनॉट स्टेशन पर भेजने के लिए काम कर रही है-इसरो प्रमुख एस सोमनाथ

कोलकाता, 29 नवंबर: इसरो प्रमुख एस सोमनाथ (ISRO Chief S Somnath) ने कहा कि नासा भारतीय अंतरिक्ष यात्री को अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजने के लिए काम कर रही है. कहते हैं, “यह हमारे पीएम और अमेरिकी राष्ट्रपति की बैठक पर आधारित एक घोषणा है और इस विचार को सामने रखा गया था. हम इसे आगे बढ़ा रहे हैं. नासा प्रमुख ने कहा कि भारतीय अंतरिक्ष यात्री अमेरिकी वजन में अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के लिए उड़ान भरेंगे. पूरा कार्यक्रम इस तरह से किया जाना चाहिए जिससे हमें लाभ हो. हम चाहते हैं कि हमारे अंतरिक्ष यात्रियों को अमेरिकी सुविधाओं में प्रशिक्षित किया जाए.” यह भी पढ़ें: IAS officer Atal Dulloo: आईएएस अधिकारी अटल डुल्लू को मिली बड़ी जिम्मेदारी, बने जम्मू-कश्मीर के मुख्य सचिव

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पौधे बिना आंख प्रकाश को कैसे ‘देखते’ हैं?

पौधों में ना तो दिमाग होता है और ना ही आंखें. फिर वे कैसे इस बात का पता लगा लेते हैं कि प्रकाश किस तरफ है और बढ़ने के लिए उसके मुताबिक घूम जाते हैं. वैज्ञानिकों ने इस रहस्य से पर्दा उठा दिया है.भारतीय वैज्ञानिक जेसी बोस ने यह बात बहुत पहले ही बता दी थी कि पेड़-पौधों में भी जान है और वे भी सांस लेते हैं. लेकिन यह रहस्य ही बना हुआ था कि पौधे प्रकाश का पता कैसे लगाते हैं.

अब वैज्ञानिकों ने साइंस पत्रिका के नवंबर 2023 के अंक में छपे एक अध्ययन में इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की है. वैज्ञाानिक जानते हैं कि पौधों के विकास के लिए धूप बहुत जरूरी है. इसीलिए वे प्रकाश की दिशा की तरफ घूम जाते हैं. सूरजमुखी का पौधा इसकी सबसे अच्छी मिसाल है.

धूप की दिशा में बढ़ने की पौधों की इस प्रक्रिया को फोटोट्रोपिज्म कहते हैं. प्रकाश को केंद्र में रखकर होने वाली इस गतिशीलता का पता सबसे पहले चार्ल्स डार्विन और उनके बेटे ने तब लगाया, जब 19वीं सदी खत्म होने को थी. उन्होंने पाया कि जब कोई पौधा ऐसे अंधेरे कमरे में रखा हो जहां एक तरफ एक मोमबत्ती ही जल रही है तो पौधा रोशनी की तरफ झुक जाता है.

क्या पौधे इंसानों की तरह देखते हैं?

फोटोट्रोपिज्म में फोटोरिसेप्टर मदद करते हैं. साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के लिए प्रमुख रिसर्चर क्रिस्टियान फांकहॉयजर ने कहा कि पौधों में फोटोरिसेप्टर कुछ-कुछ वैसे ही काम करते हैं जो इंसानों और दूसरे जानवरों की आंखों में पाए जाने वाले रिसेप्टर करते हैं. लेकिन इंसानों के रिसेप्टरों और पौधों के 'देखने वाले' रिसेप्टरों में कुछ अंतर भी हैं.

लुजान यूनिवर्सिटी के जुड़े फांकहॉयजर कहते हैं कि पहला अंतर तो यह है कि इंसानों और अन्य जानवरों के देखने वाले रिसेप्टर सिर्फ आंखों तक ही सीमित होते हैं जबकि पौधे तो पूरी तरह ऐसे रिसेप्टरों से ढके होते हैं. इसका मतलब है कि वे हर दिशा से देख सकते हैं. फांकहॉयजर ने डीडब्ल्यू के साथ खास बातचीत में कहा कि इस तरह कहा जा सकता है कि पौधे के पूरे शरीर पर आंखें होती हैं.

दूसरा अंतर यह है कि इंसान और दूसरे जानवर साफ-साफ छवि देख सकते हैं, वहीं पौधे सिर्फ प्रकाश की मौजूदगी का ही पता लगा सकते हैं, उसकी मात्रा, रंग, अवधि और दिशा के साथ.

पौधे प्रकाश की दिशा का कैसे पता लगाते हैं?

फांकहॉयजर और उनकी टीम ने कुछ खास फोटोरिसेप्टरों के काम करने के तरीके की पड़ताल की जिन्हें फोटोट्रोपिंस कहा जाता है. यही प्रकाश की दिशा पर नजर रखते हैं.

फांकहॉयजर ने बताया कि फोटोट्रॉपिंस एक ऐसे सोलर पैनल की तरह है जो सूरज की स्थिति पर नजर रखता है ताकि उसे ज्यादा से ज्यादा फोटोन मिले और सोलर एनर्जी को इलेक्ट्रिक एनर्जी में बदलने के लिए उनका इस्तेमाल किया जा सके.

हालांकि वैज्ञानिक मानते हैं कि फोटोट्रोपिंस 'देखते' हैं कि प्रकाश किस दिशा से आ रहा है, लेकिन उन्हें अब भी सटीकता से यह नहीं पता चला है कि फोटोट्रोपिंस के भीतर वो कौन सी चीज है जो आंख की तरह काम करती है.

First Laser Message From Space: पृथ्वी को अंतरिक्ष से पहली बार मिला लेजर मैसेज, 16 मिलियन KM दूर से आया संदेश, 50 सेकेंड में हुआ रिसीव

First Laser Message From Space: पृथ्वी को 16 मिलियन किलोमीटर की दूरी से लेजर-बीम संचार प्राप्त हुआ है. नासा के अनुसार, यह पृथ्वी और चंद्रमा के बीच की दूरी से 40 गुना अधिक है, जो इसे ऑप्टिकल संचार का सबसे लंबा प्रदर्शन बनाता है. यह प्रयोग डीप स्पेस ऑप्टिकल कम्युनिकेशंस (डीएसओसी) टूल द्वारा संभव हुआ, जो नासा के साइकी अंतरिक्ष यान पर यात्रा कर रहा था.

यह 13 अक्टूबर को फ्लोरिडा के कैनेडी स्पेस सेंटर से रवाना हुआ था और तब से यह लेजर-बीम संदेश को पृथ्वी पर वापस भेजने में सफल रहा है. 14 नवंबर को साइके अंतरिक्ष यान ने कैलिफोर्निया में पालोमर वेधशाला में हेल टेलीस्कोप के साथ एक संचार लिंक स्थापित किया. परीक्षण के दौरान डीएसओसी के निकट-अवरक्त फोटॉन को साइकी से पृथ्वी तक यात्रा करने में लगभग 50 सेकंड का समय लगा.

पहला लेजर संदेश हासिल करना आने वाले महीनों में कई महत्वपूर्ण डीएसओसी मील के पत्थर में से एक है, जो मानवता की अगली विशाल छलांग का हिस्सा होगा. अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशनः अंतरिक्ष में 25 बरस का सफर

नासा जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी में डीएसओसी के प्रोजेक्ट टेक्नोलॉजिस्ट अबी बिस्वास ने कहा, “यह एक जबरदस्त उपलब्धि है. साइकी पर सवार डीएसओसी के फ्लाइट ट्रांसीवर से गहरे अंतरिक्ष लेजर फोटॉनों का ग्राउंड उपकरण द्वारा सफलतापूर्वक पता लगाया गया था. हम डेटा भी दे सकते हैं, जिसका अर्थ है कि हम गहरे अंतरिक्ष से ‘प्रकाश के टुकड़ों’ का आदान-प्रदान कर सकते हैं.”

वर्तमान में गहरे अंतरिक्ष में यान के साथ संचार पृथ्वी पर विशाल एंटेना से भेजे और प्राप्त किए गए रेडियो संकेतों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है. हालांकि, उनकी बैंडविड्थ सीमित है. इस प्रयोग के साथ नासा अंततः रेडियो तरंगों के बजाय प्रकाश का उपयोग करके पृथ्वी और अंतरिक्ष यान के बीच जानकारी भेजने के लिए लेजर का उपयोग करने की उम्मीद कर रहा है. अंतरिक्ष एजेंसी ने कहा कि यह प्रणाली मौजूदा अंतरिक्ष संचार उपकरणों की तुलना में 10 से 100 गुना तेजी से सूचना प्रसारित करने में सक्षम है.

अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशनः अंतरिक्ष में 25 बरस का सफर

25 बरसों में धरती के 1,40,000 चक्कर लगा चुका अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन यानी आइएसएस, अब भी विज्ञान की दुनिया में शांतिपूर्ण वैश्विक सहयोग की मिसाल है.हमें खबर भी नहीं कि आईएसएस 24 घंटे में 16 बार हमारे सिर के ऊपर से गुजरता है. यही नहीं 439 किलोमीटर की ऊंचाई पर 16 सूर्योदय और सूर्यास्त देखना भी उसकी दिनचर्या का हिस्सा है. इसे धरती से देखना और दिन में किसी भी वक्त उसकी स्थिति का पता लगाना मुमकिन है. लेकिन आइएसएस और उस पर सवार वैज्ञानिक क्या करते हैं, उस पर किसी की नजर नहीं जाती. इस स्टेशन की मदद से ऐसी बहुत सारी खोजेंहुई हैं जो धरती पर जीवन को सीधे तौर पर प्रभावित करती हैं.

यह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति, शांति और सहयोग के लिए दुनिया के सबसे सफल स्थानों में से एक है, युद्ध के माहौल में भी. यह वाकई में पिछले 25 सालों में सबसे सुरक्षित जगह साबित हुई है. जानिए आईएसएस की कुछ खास बातें.

कब हुई आइएसएस की शुरुआत

इस स्पेस स्टेशन का पहला सेगमेंट, जरया कंट्रोल मॉड्यूल रूसी था जो 20 नवंबर, 1998 को लॉंच किया गया. जरया ने ईंधन स्टोरेज और बैटरी पावर पहुंचाई और आइएसएस पहुंचने वाले दूसरे अंतरिक्ष यानों के लिए डॉकिंग जोन की भूमिका निभाई. इसके एक महीने बाद, 4 दिसंबर, 1998 को अमेरिका ने यूनिटी नोड 1 मॉड्यूल लॉंच किया. इन दोनों मॉड्यूल के जरिए ही स्पेस लैबोरेट्री ने काम करना शुरु किया. इसके बाद स्टेशन खड़ा करने के लिए 42 असेंबली फ्लाइट की मदद से, आइएसएस वह बन पाया जैसा वह आज है.

इस पर रहने वाले शुरुआती अंतरिक्षयात्रियों में नासा के बिल शेपर्ड और रॉसमॉस के यूरी गिडजेंको व सर्गेइ क्रिकालेव शामिल हैं. उस वक्त से आइएसएस पर हमेशा अंतरिक्षयात्री रहे हैं.

कितना बड़ा है आइएसएस

आइएसएस रहने और काम करने के लिए कई हिस्सों में बंटा हुआ है. इसमें सोने के लिए छह क्वाटर, दो बाथरूम, एक जिम और एक 360 डिग्री का दृश्य दिखाने वाली खिड़की है. नासा के मुताबिक, इसका माप करीब 109 मीटर है यानी 357 फीट, जो एक अमेरिकी फुटबॉल फील्ड के बराबर है. अगर आप तैराकी का शौक रखते हैं तो समझिए कि यह एक ओलिंपिक स्विमिंग पूल की लंबाई का दोगुना है.

इसका सोलर एरे विंगस्पैन भी 109 मीटर का है. अगर इसकी तुलना कमर्शियल एयरक्राफ्ट से की जाए तो एअरबस ए380 का विंगस्पैन 79.8 मीटर है. यही नहीं इस स्पेस स्टेशन के भीतर करीब 13 किलोमीटर लंबी इलेक्ट्रिकल तारों का जाल है.

आइएसएस एक दिन की अवधि में धरती के कई चक्कर लगाता है. बिल्कुल सटीक शब्दों में कहें तो हर 90 मिनट पर यह, 8 किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से चक्कर काटता है.

स्टेशन पर क्या करते हैं एस्ट्रॉनॉट

जब अंतरिक्षयात्री किसी एक्सपेरीमेंट में नहीं लगे होते तब वह सामान्य स्पेसवॉक यानी अंतरिक्ष की सैर पर निकलते हैं ताकि स्टेशन में नई चीजें जोड़ी जा सकें जैसे रोबोटिक हाथ या फिर रख-रखाव. कई बार ऐसा भी हुआ है कि उन्हें अंतरिक्ष में पड़े मलबे की वजह से हुए छेदों का परीक्षण करके उन्हें ठीक करना पड़ा.

अंतरिक्षयात्री, सेहत से जुड़ी कड़ी दिनचर्या का पालन करते हैं. उन्हें अपनी मांसपेशियों और हड्डियों को कमजोर होने से बचाना होता है, जिसकी वजह माइक्रोग्रैविटी या गुरुत्वाकर्षण की कमी है. इसका मतलब है कि उन्हें हर दिन कम से कम दो घंटे तक विशेष मशीनों पर कसरत करनी होती है जिसमें ट्रेडमिल पर दौड़ना भी शामिल है. लेकिन जैसे-जैसे रिसर्चर अंतरिक्ष में इंसानों के रहने पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं, जैसे चंद्रमा या मंगल पर, उससे अंतरिक्षयात्रियों की रोजाना कसरत के जरिए अंतरिक्ष में मानव शरीर पर पड़ने वाले असर के बारे में भी नई समझ बन रही है. क्या होगा अगर इंसान बिना गुरुत्वाकर्षण के लंबे वक्त तक अंतरिक्ष में रहें? क्या हमारे शरीर में ताकत बनी रहेगी या वह धरती पर लौटने के लिए बेहद कमजोर हो जाएगा?

आइएसएस पर खोज से धरती का क्या फायदा

अंतरिक्षयात्रियों ने स्टेशन पर हजारों प्रयोग किए हैं. कई बार तो वह खुद पर ही एक्सपेरीमेंट करते हैं, जैसे अपनी सेहत मॉनीटर करना, खान-पान या फिर सोलर रेडिएशन के असर की पड़ताल. इसके अलावा, वह धरती पर मौजूद वैज्ञानिकों के लिए भी प्रयोग करते हैं. इनकी वजह से बहुत सारी वैज्ञानिक सफलताएं हासिल हुई हैं.

अल्जाइमर से लेकर पार्किंसन, कैंसर, अस्थमा या दिल की बीमारियां हों, इन सभी पर स्पेस में शोध हुआ है. वैज्ञानिक कहते हैं कि कुछ प्रयोग तो केवल अंतरिक्ष में ही बेहतर किए जा सकते हैं क्योंकि माइक्रोग्रैविटी में कोशिकाएं उसी तरह काम करती हैं जैसे इंसानी शरीर के अंदर, लेकिन धरती की दशाएं पैदा करना मुश्किल होता है.

ऐसी कईं खोजें हुई हैं जिनसे दवाएं बनाने, पानी साफ करने के सिस्टम, मांसपेशियों और हड्डियों की कमजोरियां दूर करने के तरीके और खाना उगाने की तकनीक में भी मदद मिली है.

कब तक काम करेगा स्टेशन

आइएसएस के भविष्य को लेकर अनिश्चितताएं तब पैदा हुईं जब रूस ने साल 2022 की शुरुआत में यूक्रेन पर चढ़ाई कर दी. यूरोपियन स्पेस एजेंसी ने रूस के साथ अंतरराष्ट्रीय सहयोग से कदम पीछे खींच लिए और रूस ने कहा कि वह आइएसएस छोड़कर अपना स्पेस स्टेशन बनाएगा. हालांकि सिर्फ युद्ध ही एक मसला नहीं है, अंतरिक्ष में कदम रख चुके देश चाहते हैं कि वह स्पेस में अपनी अलग पहचान स्थापित करें. इसमें जापान, चीन, भारत और यूएई समेत दूसरे देश भी हैं.

अमेरिका और यूरोप ने कहा है कि वह इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन को 2030 तक चलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं लेकिन आइएसएस के बाद की दुनिया के लिए भी तैयारी चल रही है. नासा लगभग पूरी तरह से अपने आर्टेमिस प्रोग्राम पर ध्यान लगाए हुए है और चांद पर इंसान बसाने का इरादा रखती है. दूसरी ओर, यूरोपीय स्पेस एजेंसी अपना नया स्टेशन बनाने की तैयारियों में लगी है, जिसका नाम स्टारलैब बताया जा रहा है.

वाकई स्पेस में क्या होगा, यह देखने वाली बात होगी.

OpenAI के सैकड़ों कर्मचारियों की धमकी, बोर्ड इस्तीफा दे नहीं तो सैम ऑल्टमैन की तरह माइक्रोसॉफ्ट ज्वाइन कर लेंगे

ओपनएआई (OpenAI) के सह-संस्थापक इल्या सुत्सकेवर (Ilya Sutskever) सहित सैकड़ों कर्मचारियों ने एक पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें मांग की गई है कि या तो ओपनएआई के शेष बोर्ड सदस्य इस्तीफा दे दें या वे ओपनएआई कर्मचारी माइक्रोसॉफ्ट में सैम ऑल्टमैन (Sam Altman) के नए उद्यम में शामिल हो जाएंगे. इससे पहले माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्य नडेला (Satya Nadella) ने सोमवार को घोषणा की कि माइक्रोसॉफ्ट (Microsoft) ने ओपनएआई के सह-संस्थापक सैम ऑल्टमैन और ग्रेग ब्रॉकमैन को “नई उन्नत एआई अनुसंधान टीम” का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त किया है.

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नई एंटीबायोटिक दवाएं खोजने की कोशिश

जैसे-जैसे एंटिबायोटिक दवाओं का असर कम हो रहा है, वैज्ञानिकों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं. अब नई एंटिबायोटिक दवाएं बनाने की कोशिश हो रही है.सुपरबग यानी एंटीबायोटिक दवाओं का इंसानी शरीर पर खत्म हो जाना वैश्विक स्तर पर सेहत के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक माना जाता है. एक अनुमान के मुताबिक 2019 में इस वजह से 12.7 लाख लोगों की जान गई थी. संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2050 तक यह खतरा इतना बड़ा हो जाएगा हर साल लगभग एक करोड़ लोगों की जानें सिर्फ इसलिए जा रही होंगी क्योंकि उन पर एंटीबायोटिक दवाएं असर नहींकर रही होंगी.

यह खतरा इतना बड़ा है इसलिए वैज्ञानिक इससे निपटने के लिए कई तरह की कोशिशें कर रहे हैं. इनमें नई तरह की एंटिबायोटिक दवाओं के विकास से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद लेने तक तमाम प्रयास शामिल हैं.

काम करना बंद कर रही हैं दवाएं

उत्तरी नाईजीरिया में काम कर रहीं डॉ. नुबवा मेदुगू कहती हैं कि जब उन्होंने 2008 में कानो शहर में अपने मेडिकल करियर की शुरुआत की थी तो टाइफॉयड से ग्रस्त बहुत से बच्चे अस्पताल में इसलिए आते थे क्योंकि दवाएं उन पर काम नहीं कर रही थीं. द कन्वर्सेशन मैग्जीन में एक पॉडकास्ट में डॉ. मेदुगू ने कहा, "मुझे तब पता नहीं था कि बहुत से मरीजों के संक्रमणों का ठीक ना होना एक बहुत बड़ी समस्या की झलक भर था.”

अब नाईजीरिया की राजधानी अबुजा के राष्ट्रीय अस्पताल में क्लिनिकल माइक्रोबायोलॉजिस्ट के रूप में शोध कर रहीं मेदुगू कहती हैं, "अब ऐसे इंफेक्शन खोजना लगभग असंभव हो गया है जिनमें कम से कम एक एंटिबायोटिक के लिए प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो गई है.”

हाल ही में इस विषय पर एक शोध पत्र में उन्होंने बताया है कि कौन-कौन सी एंटिबायाटिक दवाओं का असर लगातार कम होता जा रहा है. वह कहती हैं कि सबसे ज्यादा चिंता की बात ये है कि जो दवाएं कभी आखरी इलाज हुआ करती थीं, उनका असर भी अब खत्म हो रहा है.

नई एंटीबायोटिक दवाओं की तलाश

दुनिया में कई वैज्ञानिक अब ऐसी नई एंटिबायोटिक दवाएं विकसित करने में लगे हैं जो पुरानी दवाओं से पार पा चुके संक्रमणों पर प्रभावी साबित हो सकें. न्यूयॉर्क के रोचेस्टर इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में बायोकेमिस्ट्री के प्रोफेसर आंद्रे हड्सन उन्हीं में से एक हैं. वह पारंपरिक बायोप्रोस्पेक्टिंग तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें मिट्टी जैसे कुदरती तत्वों से संभावित एंटिबायोटिक्स निकालने की कोशिश की जाती है.

एक इंटरव्यू में हडसन बताते हैं कि पारंपरिक रूप से किसी एक बैक्टीरिया को निकालकर उसका डीएनए पर शोध किया जाता है और उससे उस बैक्टीरिया के पूरे समुदाय पर असर डालने वाली दवा बनाई जाती है. लेकिन अब कुछ वैज्ञानिक मेटाजेनोमिक्स नामक तकनीक का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसमें किसी कुदरती तत्व जैसे कि मिट्टी में मौजूद बैक्टीरिया के पूरे समुदाय की सीक्वेंसिंग की जाती है.

साथ ही बहुत से वैज्ञानिक खोज की गति बढ़ाने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का भी इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि यह तकनीक उस सीमा तक सोच सकती है, जहां तक वैज्ञानिक भी नहीं सोच रहा हे हैं. हालांकि यह अभी सिर्फ सिद्धांत के स्तर पर ही है.

नाजी अत्याचार में डॉक्टरों की भी थी अहम भूमिका

एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार कि जर्मनी में नाजी शासन के दौरान 3,50,000 से ज्यादा लोगों की नसबंदी की गई थी. इसमें डॉक्टरों और चिकित्सा क्षेत्र के अन्य पेशेवरों की भी भूमिका थी. उस दौर की घटना से आज के डॉक्टर सबक ले सकते हैं.ऑस्ट्रिया के वियना मेडिकल यूनिवर्सिटी के हेरविग चेक कहते हैं, "यह आश्चर्य की बात है कि मौजूदा समय में चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों को नाजियों के चिकित्सा अपराध के बारे में काफी कम जानकारी है. उन्हें आउशवित्स में योसेफ मेंगेले के प्रयोगों के अलावा शायद किसी अन्य बात की जानकारी नहीं है.” इसलिए, हेरविग चेक और उनके सहयोगियों ने तीन साल पहले प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल द लैंसेट के प्रधान संपादक को एक नया आयोग बनाने का सुझाव दिया था.

उन्होंने योजना बनाई कि नाजी शासन के चिकित्सा अपराधों के बारे में लोगों को जानकारी दी जाए. इससे चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़े लोग भी भविष्य के लिए किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाएंगे. इस आयोग ने नवंबर 2023 में अपनी रिपोर्ट जारी की.

नाजी अत्याचारों की विस्तृत जानकारी

शोधकर्ताओं ने थर्ड राइष यानी कि 1933 से लेकर 1945 तक के नाजी जर्मनी में किए गए चिकित्सा अत्याचारों के ऐतिहासिक साक्ष्य इकट्ठा किए. इससे पता चलता है कि अत्याचार करने वालों की संख्या काफी ज्यादा थी. उन अत्याचारों के नतीजे आज भी महसूस किए जा सकते हैं.

रिपोर्ट से पता चलता है कि किस तरह डॉक्टरों और चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञों ने जबरन नसबंदी कानून बनाने में मदद की और 3,50,000 से ज्यादा लोगों की नसबंदी करने में शामिल रहे. इन लोगों को नाजियों के नस्ल कानून के तहत ‘आनुवंशिक रूप से निम्न' माना गया था. जिन लोगों की नसबंदी की गई उनमें से काफी लोगों पर शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से गंभीर असर पड़ा. इनमें से काफी लोगों की मौत हो गई.

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी और उसके कब्जे वाले इलाकों में दिमागी असंतुलन, मानसिक और शारीरिक विकलांगता वाले कम से कम 2,30,000 लोगों की ‘इच्छा मृत्यु कार्यक्रमों' के तहत हत्या कर दी गई थी. उदाहरण के लिए, कंसंट्रेशन कैंप में कैद दसियों हजार लोगों पर मेडिकल परीक्षण किए गए.

अपराधों को जायज ठहराने के लिए युजिनिक्स का इस्तेमाल

इन अत्याचारों को जायज ठहराने के लिए, नाजियों की नस्लीय विचारधारा को छद्म-वैज्ञानिक प्रमाणिकता के तौर पर इस्तेमाल किया गया था. नाजियों ने युजिनिक्स के आधार पर इसे ‘नस्लीय स्वच्छता' कहा था. युजिनिक्स के तहत माना जाता था कि चयनात्मक प्रजनन से मानव जाति में सुधार लाया जा सकता है. यह सिद्धांत चार्ल्स डार्विन के काम पर आधारित था, जिन्होंने 19वीं शताब्दी के मध्य में मानव विकास का अपना सिद्धांत (थियरी ऑफ इवोल्यूशन) प्रकाशित किया था.

इस सिद्धांत के मुताबिक, किसी प्रजाति के केवल सबसे योग्य सदस्य ही प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया में जीवित रहते हैं, जबकि अन्य गायब हो जाते हैं. युजिनिस्टों ने प्राकृतिक चयन के इस सिद्धांत को मानव समाज पर लागू किया. उनका लक्ष्य कथित तौर पर ‘अच्छे' वंशानुगत गुणों वाले लोगों के वंश को आगे बढ़ाना और ‘निम्न' वंशानुगत गुणों वाले लोगों के वंश को खत्म करना था.

सामाजिक बुराईयों के लिए ‘निम्न' गुण वालों को बनाया बलि का बकरा

जर्मनी और अन्य सभी जगहों पर सभी पार्टियों और सामाजिक वर्गों ने युजिनिक्स को विज्ञान के तौर पर स्वीकार किया. यहां तक कि शोधकर्ता और डॉक्टर भी इस बात से सहमत थे. इससे कथित तौर पर ‘निम्न' लोगों को काफी ज्यादा कष्ट झेलना पड़ा.

20वीं सदी की शुरुआत में जर्मनी में युजिनिक्स सिद्धांत को अपनी जड़ें जमाने में कोई परेशानी नहीं हुई, क्योंकि बहुत से लोग संघर्ष कर रहे थे. बड़े पैमाने पर बेरोजगारी थी. लोग गंदी जगहों पर रहने को मजबूर थे. अपराध में बेतहाशा वृद्धि हो रही थी. तेजी से बीमारियां फैल रही थीं और मृत्यु दर काफी ज्यादा बढ़ गई थी.

युजिनिक्स को मानने वालों का कहना था कि इस निराशाजनक स्थिति के लिए ‘निम्न जैविक पदार्थ' जिम्मेदार है. इन्होंने दावा किया कि समाज को विनाश से बचाने के लिए जबरन नसबंदी या ‘नालायक लोगों' की हत्या जैसे युजिनिकल उपाय अपनाने होंगे. युजिनिस्टों के मुताबिक, ‘नालायक लोगों' के लिए पर्याप्त धन, भोजन और जगह नहीं थी.

नस्ल के प्रति नाजियों का जुनून

नाजियों ने अपने नस्ल कानून को सही ठहराने के लिए युजिनिक्स को अपनाया. उन्होंने तथाकथित ‘नस्लीय रूप से शुद्ध आर्य बच्चों' के पालन-पोषण को प्रोत्साहित किया. साथ ही, वे चाहते थे कि कंसंट्रेशन कैंप में जबरन नसबंदी, इच्छा मृत्यु या व्यवस्थित तरीके से हत्या के जरिए ‘नालायक लोगों' को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए. शोधकर्ता और डॉक्टर उनकी इन कोशिशों में सक्रिय तौर पर शामिल थे.

द लैंसेट की नई रिपोर्ट को तैयार करने के लिए 878 स्रोतों का इस्तेमाल किया गया और यह अब तक की अपनी तरह की सबसे विस्तृत रिपोर्ट है. इसमें नाजी शासन के दौरान चिकित्सा के क्षेत्र में किए गए अनुसंधान की जानकारी दी गई है. अपराधियों और पीड़ितों सहित कैद किए गए उन डॉक्टरों का चित्र है जिन्होंने मुश्किल हालात में अपने साथी कैदियों का इलाज किया.

इस्तेमाल में है नाजी काल की एनाटोमी की किताब

पूर्व में हुए अपराधों से निपटने के प्रयासों के बावजूद, कई अपराधियों और उनके सहयोगियों को युद्ध के बाद जिम्मेदार नहीं ठहराया गया या सिर्फ कुछ लोगों को कई वर्षों बाद सजा मिली. रिपोर्ट में पाया गया है कि नाजियों ने जिन जानकारियों को इकट्ठा किया उनका इस्तेमाल अक्सर बिना दोबारा जांचे किया जाता रहा है. उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रियाई एनाटोमिस्ट (शरीर रचना विज्ञानी) एडुआर्ड पर्नकॉप्फ की किताब आज भी इस्तेमाल की जाती है, क्योंकि इसमें विस्तृत जानकारी दी गई है. जबकि, नाजियों ने इस किताब में उन लोगों की तस्वीरें शामिल की थीं जिन्हें थर्ड राइष के दौरान मार डाला गया था.

आयोग का लक्ष्य डॉक्टरों और चिकित्सा कर्मचारियों को चिकित्सा से जुड़ी उन जानकारियों के स्रोत के बारे में बताना भी है जिनका वे इस्तेमाल करते हैं. आयोग के सह-अध्यक्ष और येरूशलम हिब्रू विश्वविद्यालय के शामुएल पिनहास राइष ने कहा, "मेडिकल छात्रों, शोधकर्ताओं और चिकित्सा पेशेवरों को पता होना चाहिए कि चिकित्सा ज्ञान की मूल बातों का स्रोत क्या है.”

भविष्य के लिए इस रिपोर्ट के मायने

आयोग की रिपोर्ट को लेखक पहले कदम के रूप में देखते हैं. वे विस्तृत ऑनलाइन दस्तावेज तैयार करने की योजना बना रहे हैं. आयोग की एक अन्य सह-अध्यक्ष और बॉस्टन स्थित हार्वर्ड मेडिकल स्कूल की सबीने हिल्डेब्रांट ने कहा, "नाजियों ने चिकित्सा से जुड़े जो अत्याचार किए हैं वे इतिहास में मानवाधिकारों के उल्लंघन के सबसे क्रूर और उल्लिखित उदाहरणों में से एक हैं.”

सबिने हिल्डेब्रांट का कहना है, "हमें मानवता के सबसे बुरे इतिहास का अध्ययन करना चाहिए. इससे मौजूदा समय में उस तरह के मिलते-जुलते पैटर्न को पहचानने और उससे मुकाबला करने में मदद मिलती है.”

सिर्फ 10 सेकेंड में टाइप 2 डायबिटीज बताएगा एआई

ध्वनि विश्लेषण एआई टाइप 2 डायबिटीज का पता करने के लिए एक उपयोगी टूल हो सकता है, लेकिन इसके साथ चेतावनी भी जुड़ी है.उन्नत ध्वनि विश्लेषण का इस्तेमाल करने वाले मेडिकल डायग्नोस्टिक टूल्स तेजी से सटीक होते जा रहे हैं. स्पीच पैटर्न का विश्लेषण खासतौर पर पार्किंसंस या अल्जाइमर्स जैसी बीमारियों के लिए बहुमूल्य जानकारी मुहैया करा सकता है.

वॉयस एनालिसिस का इस्तेमाल करके मानसिक बीमारी, अवसाद, पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर और दिल की बीमारी का भी पता लगाया जा सकता है.

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआई संकुचित रक्त वाहिकाओं या थकावट के लक्षणों का भी पता लगा सकती है. इससे स्वास्थ्यकर्मियों को मरीजों का जल्द इलाज करने और किसी भी संभावित जोखिम को कम करने की अनुमति मिलती है.

अमेरिका के 'मेयो क्लिनिक प्रोसीडिंग्सः डिजिटल हेल्थ' मेडिकल जर्नल में छपे एक शोध के मुताबिक किसी व्यक्ति को टाइप 2 डायबिटीज है या नहीं यह आश्चर्यजनक सटीकता के साथ निर्धारित करने के लिए आवाज की एक छोटी रिकॉर्डिंग ही काफी है.

अज्ञात रोग

इस तकनीक का उद्देश्य अज्ञात डायबिटीज से पीड़ित लोगों की पहचान करने में मदद करना है. इस नई तकनीक के जरिए दुनियाभर में ऐसे 24 करोड़ लोगों को बहुत मदद मिलेगी जो टाइप-2 डायबिटीज के शिकार हैं, लेकिन उन्हें इसका पता ही नहीं है. यह आंकड़ा इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन का है.

ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लांसेट में छपे इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के शोध के मुताबिक भारत के कुछ राज्यों में मधुमेह के मामले तेजी से बढ़े हैं. करीब दस करोड़ भारतीय लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं. टाइप 2 डायबिटीज वाले लोगों में दिल से जुड़ी बीमारियों, जैसे दिल का दौरा और स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है.

10 सेकेंड में कैसे पता चलेगा टाइप-2 डायबिटीज का

वैज्ञानिकों ने लोगों की सेहत के बुनियादी डाटा जैसे उम्र, सेक्स, ऊंचाई और वजन के साथ-साथ आवाज के छह से दस सेकेंड लंबे सैंपल लेकर एआई मॉडल विकसित किया, जिसकी मदद से पता चल सके कि व्यक्ति को टाइप-2 डायबिटीज है या नहीं.

इस मॉडल का डायग्नोसिस 89 फीसदी महिलाओं और 86 फीसदी पुरुषों के मामले में सही साबित हुआ. अमेरिका की क्लिक लैब ने यह एआई मॉडल तैयार किया है, जिसमें वॉयस टेक्नॉलजी के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके मधुमेह का पता लगाने में प्रगति हुई है.

एआईको प्रशिक्षित करने के लिए कनाडा में ओंटारियो टेक यूनिवर्सिटी में जेसी कॉफमैन और उनकी टीम ने 267 व्यक्तियों की आवाजें रिकॉर्ड कीं, जिन्हें या तो मधुमेह नहीं था या जिन्हें पहले से ही टाइप 2 मधुमेह का पता था.

अगले दो सप्ताह के दौरान प्रतिभागियों ने अपने स्मार्टफोन पर हर रोज छह बार एक छोटा वाक्य रिकॉर्ड किया. 18,000 से अधिक आवाज के नमूने तैयार किए गए, जिनमें से 14 अकूस्टिक फीचर को अलग किया गया, क्योंकि वे मधुमेह वाले और बिना मधुमेह वाले प्रतिभागियों के बीच भिन्न थे.

जेसी कॉफमैन ने कहा, "फिलहाल जो तरीके इस्तेमाल होते हैं, उनमें बहुत वक्त लगता है, आना-जाना पड़ता है और ये महंगे पड़ सकते हैं. वॉयस टेक्नॉलजी में यह संभावना है कि इन सारी रुकावटों को पूरी तरह से दूर कर दे."

वॉयस एनालिसिस के खतरे

डायग्नोस्टिक टूल्स के रूप में वॉयस एनालिसिस के समर्थक उस गति और दक्षता पर जोर देते हैं जिसके साथ रोगी की आवाज का इस्तेमाल करके बीमारियों का पता लगाया जा सकता है. लेकिन भले ही एआई समर्थित टूल्स बहुत विशिष्ट जानकारी मुहैया करने में सक्षम हों, मुट्ठी भर आवाज के नमूने एक अच्छी तरह से स्थापित डायग्नोस्टिक टूल्स विकसित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.

क्या दुरुपयोग हो सकता है

आलोचकों और डाटा सुरक्षा ऐक्टिविस्टों ने स्पीच एनालिसिस सॉफ्टवेयर के भारी जोखिम के बारे में चेतावनी दी है, उदाहरण के लिए नियोक्ताओं या इंश्योरेंस कॉल सेंटरों द्वारा इसका गलत इस्तेमाल किया जा सकता है.

एक जोखिम यह भी है कि स्पीच एनालिसिस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल सहमति के बिना किया जा सकता है और व्यक्तिगत स्वास्थ्य जानकारी के आधार पर ग्राहकों या कर्मचारियों को नुकसान हो सकता है.

यही नहीं संवेदनशील मेडिकल जानकारी हैक हो सकती है, उसे बेचा जा सकता है या फिर उसका गलत इस्तेमाल हो सकता है. हालांकि डायग्नोस्टिक टूल्स के रूप में स्पीच एनालिसिस पर स्पष्ट नियम और सीमाएं वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित नहीं की जा सकती हैं. यह पूरी तरह से राजनीति के दायरे में आता है.

NASA & ISRO Ready to Launch NISAR अब हर 12 दिन में अपडेट होगा मैप! निसार’ लॉन्च’करेंगे नासा और इसरो

NASA And ISRO Ready To Launch NISAR: नासा-इसरो सेंथेटिक अपर्चर रडार (NISAR) कुछ परीक्षणों के बाद अगले साल की पहली तिमाही में लॉन्च किए जाने की संभावना है. 2024 की शुरुआत में लॉन्च के लिए निर्धारित ‘निसार’ हर 12 दिनों में पूरी पृथ्वी को मैप करने के लिए डुअल-बैंड सिंथेटिक एपर्चर रडार (एसएआर) तकनीक ले जाएगा, जिससे उच्च-रिज़ॉल्यूशन छवियों का एक विशाल डेटासेट तैयार होगा.

NISAR के प्राथमिक उद्देश्य

प्राकृतिक खतरों की निगरानी: एनआईएसएआर भूकंप, ज्वालामुखी, सुनामी और भूस्खलन जैसे प्राकृतिक खतरों पर नज़र रखने और भविष्यवाणी करने के लिए महत्वपूर्ण डेटा प्रदान करेगा, जिससे प्रारंभिक चेतावनी और आपदा तैयारियों को सक्षम किया जा सकेगा.

जलवायु परिवर्तन को समझना: NISAR बर्फ की चादरों, ग्लेशियरों और पर्माफ्रॉस्ट में परिवर्तन को मापेगा, जिससे वैज्ञानिकों को पृथ्वी के क्रायोस्फीयर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी.

जल संसाधनों का मानचित्रण: एनआईएसएआर सतही जल निकायों, भूजल और मिट्टी की नमी का मानचित्रण करेगा, जिससे पानी की उपलब्धता और सूखे की निगरानी के बारे में जानकारी मिलेगी.


कृषि और वानिकी की निगरानी: एनआईएसएआर स्थायी कृषि और वानिकी प्रथाओं का समर्थन करते हुए भूमि उपयोग, फसल स्वास्थ्य और वन आवरण में बदलाव पर नज़र रखेगा.

पारिस्थितिकी तंत्र को समझना: निसार वनस्पति बायोमास, जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र परिवर्तनों का मानचित्रण करेगा, संरक्षण प्रयासों और पर्यावरण निगरानी में सहायता करेगा.

एनआईएसएआर मिशन पृथ्वी की गतिशील प्रक्रियाओं और पर्यावरणीय चुनौतियों का जवाब देने की हमारी क्षमता की हमारी समझ में एक महत्वपूर्ण कदम है. यह वैश्विक मुद्दों को संबोधित करने और वैज्ञानिक ज्ञान को आगे बढ़ाने में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की शक्ति का एक प्रमाण है.

क्या मोबाइल फोन की वजह से शुक्राणुओं की संख्या में कमी आ सकती है?

शोधकर्ताओं ने मोबाइल फोन के इस्तेमाल और युवा पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या में कमी के बीच एक संभावित संबंध का पता लगाया है. तो क्या इस खबर से आपको चिंतित होना चाहिए?पिछले कई दशकों से दुनिया भर में शुक्राणुओं की संख्या में गिरावट आ रही है. इसके कारणों को लेकर शोधकर्ताओं के पास कई परिकल्पनाएं हैं लेकिन यह कोई नहीं जानता कि इस कमी की वास्तविक वजह क्या है. स्विट्जरलैंड में हुए एक नए अध्ययन से इस सूची में एक और संभावित जोखिम जुड़ सकता है, और वो है मोबाइल फोन.

स्विस शोधकर्ताओं ने 2,800 से भी ज्यादा युवा पुरुषों के वीर्य के नमूनों का विश्लेषण करने के बाद यह पाया है कि ज्यादा मोबाइल फोन के इस्तेमाल और कम शुक्राणुओं के बीच एक खास संबंध है.

जिन युवाओं पर यह शोध किया गया है, मोबाइल के इस्तेमाल के बारे में उन्होंने खुद जानकारी दी है. इस अध्ययन को फर्टिलिटी एंड स्टेरिलिटी जर्नल में इस सप्ताह प्रकाशित किया गया है.

शोधकर्ताओं को विभिन्न प्रकार के फोन उपयोगकर्ताओं के बीच शुक्राणु की गतिशीलता या आकारिकी में कोई अंतर नहीं मिला. उन्हें कोई ऐसा सबूत भी नहीं मिला जो यह दर्शाता हो कि फोन को बैकपैक के बजाय जेब में रखना, शुक्राणुओं की संख्या में कोई भूमिका निभाता है. यानी मोबाइल फोन व्यक्ति किस जगह रख रहा है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है.

शोधकर्ताओं ने 2005 से 2018 तक अध्ययन किया और पाया कि अध्ययन के अंत की तुलना में अध्ययन के पहले वर्षों के दौरान फोन के ज्यादा इस्तेमाल और कम शुक्राणुओं की संख्या के बीच संबंध कहीं ज्यादा स्पष्ट था.

शोधकर्ताओं के मुताबिक, "यह पैटर्न नई प्रौद्योगिकियों के संक्रमण के अनुरूप है. खासकर, 2जी से 3जी और 4जी तक. शुक्राणुणों में कमी, फोन की आउटपुट पावर में इसी क्रम के अनुरूप है.”

प्रजनन क्षमता को प्रभावित करने वाले कारक

अध्ययन में मोबाइल फोन को उन कारकों की एक लंबी सूची में जोड़ा गया है जो अन्य शोधकर्ताओं के मुताबिक, प्रजनन क्षमता में अवरोध उत्पन्न कर सकते हैं. जैसे – धूम्रपान, मोटापा, शराब, मनोवैज्ञानिक तनाव और कीटनाशकों और सब्जियों को पैक करने वाले प्लास्टिक रैपर में पाए जाने वाले तथाकथित ‘एंडोक्राइन डिसरप्टिंग' रसायन, जिन्हें हम दुकान पर खरीदते हैं.

यह शोध पिछले कुछ दशकों में बढ़ती चिंता के कुछ सबूत प्रदान करता है कि मोबाइल फोन से उत्सर्जित रेडियोफ्रिक्वेंसी विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र (RF-EMFs) मानव के प्रजनन स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं.

अभी तक, इस संभावित संबंध को देखने वाले अध्ययन सिर्फ चूहों पर या फिर प्रयोगशालाओं में शुक्राणुओं पर किए गए हैं. यह अध्ययन पहली बार ‘वास्तविक दुनिया' में किया हुआ माना जा रहा है, जिसे बाहरी शोधकर्ता सकारात्मक बता रहे हैं.

यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर में एंड्रोलॉजी के प्रोफेसर एलन पेसी शोध में तो शामिल नहीं थे लेकिन इसके परिणामों के बारे में उनकी राय कुछ अलग है.

एक बयान में वो कहते हैं, "अध्ययन सही नहीं है और इसके लेखक मोबाइल फोन के उपयोग की स्वयं रिपोर्टिंग के जरिए इसे खुद ही स्वीकार करते हैं. लेकिन यह वास्तविक दुनिया में किया गया एक अध्ययन है और मेरी राय में यह अच्छा है.”

जीववैज्ञानिक दृष्टि से कोई स्पष्टीकरण नहीं

केयर फर्टिलिटी की मुख्य वैज्ञानिक अधिकारी एलिसन कैंपबेल भी इस अध्ययन में शामिल नहीं थीं लेकिन वे इसे ‘आकर्षक और अनोखा' बताती हैं.

हालांकि, उनका मानना है कि लगातार और बहुत ज्यादा मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने वालों के शुक्राणुओं की संख्या में गिरावट के कई और भी कारण हो सकते हैं.

पेसी की चिंता भी लगभग ऐसी ही है. वो कहते हैं, "हम निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकते कि मोबाइल फोन पुरुषों की जीवनशैली या व्यवसाय के किसी अन्य पहलू के लिए सरोगेट मार्कर नहीं है, जो उनके शुक्राणु की गुणवत्ता में किसी भी बदलाव का वास्तविक कारण है.”

कैंपबेल कहती हैं कि इस्तेमाल और क्षमता के बीच का यह संबंध सिर्फ देखा गया है, पुष्टि के लिए कोई वैज्ञानिक तर्क नहीं है. उनके मुताबिक, "वर्तमान में इस खोज के पीछे जीव विज्ञान या तंत्र की तरफ से कोई पुष्टि नहीं हुई है, क्योंकि इस बारे में अभी तक कोई शोध नहीं किया गया है.”

पुरुषों को क्या करना चाहिए?

यदि आप ऐसे व्यक्ति हैं जो भविष्य में किसी दिन बच्चे पैदा करना चाहते हैं, तो यह खबर आपको चिंताजनक लग सकती है. लेकिन शोधकर्ताओं का कहना है कि चिंता की कोई बात नहीं है और अभी से इसे लेकर अपनी लाइफस्टाइल में कोई बड़ा बदलाव करने की जरूरत नहीं है.

पेसी कहते हैं, "अगर पुरुषों की बात है तो अपने फोन को बैग में रखना और उसका इस्तेमाल सीमित करना उनके लिए अपेक्षाकृत आसान काम है. लेकिन फिलहाल ऐसा कोई सबूत नहीं है जो उनके शुक्राणु की गुणवत्ता में सुधार करेगा. इसके लिए अचानक और नियंत्रित परीक्षण की आवश्यकता होगी. जहां तक ​​मेरी बात है, मैं तो अपना फोन अपने ट्राउजर की जेब में ही रखूंगा.”

(क्लेयर रॉथ)